Friday, May 1, 2020

easysaran.wordpress.com

कोरोना से फैली बीमारी का सबसे डरावना पक्ष है मौत। वह मौत जिसके बाद अपने अंतिम संस्कार करने को भी राजी नहीं होते। वह मौत जिसके बाद शव छूने की इजाजत तक नहीं। कई मामलों में तो आखिर बार अपनों को मरनेवाले की सूरत देखना भी नसीब नहीं होता। सोशल डिस्टेंसिंग की चीख-पुकार के बीच कोरोनावायरस ने दूरी इतनी बना दी है कि परिजन शवों के करीब भी जाना नहीं चाहते। कुछ मामले तो ऐसे भी आए, जहां परिजन शवों का दाह संस्कार नहीं करना चाहते।

लेकिन कुछ ऐसे लोग हैं, जो इन परायों को अपनों की तरह अलविदा कर रहे हैं। जो कोरोना संक्रमण के बीच शवों के करीब भी जा रहे हैं। उन्हें कंधा भी दे रहे हैं। परिजनों के न होने पर अग्नि भी दे रहे हैं। यहां तक कि कुछ तो अंतिम संस्कार का खर्च तक उठा रहे हैं। वक्त सुबह से लेकर शाम तक श्मशान में शवों के बीच गुजर रहा है। परिवार इनका भी है। घर पर छोटे बच्चे भी हैं। खतरा इन्हें भी है, लेकिन बावजूद इसके ये बेखौफ यह काम कर रहे हैं। इंदौर, जयपुर और मुंबई के ऐसे ही तीन योद्धाओं की कहानी।

पहली कहानी इंदौर की...
प्रदीप वर्मा जूनी इंदौर मुक्तिधाम में शवों का निशुल्क अंतिम संस्कार करते हैं। पेशे से सराफा कारोबारी वर्मा 22 मार्च से मुक्तिधाम पर रोजाना ड्यूटी दे रहे हैं। सुबह 9 बजे से शाम 6 बजे तक यहीं रहते हैं। वे कहते हैं कि, ‘लावारिस शवों को मैं खुद अग्नि देता हूं। कोरोना संक्रमित शव भी आ रहे हैं, इन्हें भी अग्नि दे रहा हूं।' वर्मा पिछले 8 सालों से मुक्तिधाम में सेवाएं दे रहे हैं। लावारिस शवों के अंतिम संस्कार का खर्च वह खुद उठाते हैं।

वर्मा अपने साथियों के साथ पीपीई किट पहनकर यह काम करते हैं।

एक शव को जलाने में 1700 से 1800 रुपए का खर्चा आता है। इसमें ढाई क्विंटल लकड़ी, 30 कंडे और दो संटी लगती हैं। एमवाय से मुक्तिधाम तक शव को लाने में 250 रुपए लगते हैं। हर महीने 10-12 हजार इस काम पर खर्च करते हैं।
इतने सब खर्च के बीच आप अपने परिवार का पालन-पोषण कैसे कर रहे हैं? ये पूछने पर बोले- मेरी सराफा में दुकान है। सामान्य दिनों में दुकान पर रहता हूं और एक टाइम मुक्तिधाम में रहता हूं। कोरोनावायरस के बाद से दुकान बंद है, तब से पूरा समय मुक्तिधाम में ही बिता रहा हूं।

कोरोना मरीजों के आने पर डर लगता है? बोले, नगर निगम ने मुझे पीपीई किट दी है। इसे पहनकर ही पूरी सुरक्षा के साथ सेवाकार्य में जुटा हुआ हूं। अब घरवाले तो बाहर निकलने से भी मना करते हैं, लेकिन नहीं निकलूंगा तो यह सेवा कैसे कर पाऊंगा।

सुबह से शाम तक मुक्तिधाम में ही रहते हैं।

प्रदीप कहते हैं, बहुत से शव लावारिस होते हैं। मेरा नंबर एमवाय अस्पताल में भी है। लावारिस शव आने पर वो लोग मुझे सूचना देते हैं। मैं एम्बुलेंस से शव बुलवा लेता हूं। फिर यहां उसका अंतिम संस्कार करता हूं। कई बार परिजन साथ होते हैं कई बार नहीं होते। बोले, कुछ समय पहले एमवाय का एक स्वास्थ्यकर्मी खुद ही कोरोना संक्रमण का शिकार हो गया। हमने ही उसका अंतिम संस्कार किया। वो कोरोना मरीजों की सेवा के लिए अरबिंदो अस्पताल गया था, लेकिन फिर लौटकर वापिस नहीं आ पाया।

दूसरी कहानी जयपुर की...
कुछ ऐसी ही जिम्मेदारी जयपुर में विष्णु गुर्जर निभा रहे हैं। पिछले 7 सालों से मुर्दाघर में नौकरी कर रहे विष्णु बीते 28 दिनों से घर नहीं गए। वे कहते हैं कि हम शवों का पोस्टमार्टम भी करते हैं और अंतिम संस्कार भी करते हैं। अभी सिर्फ उन्हीं शवों का अंतिम संस्कार कर रहे हैं जो कोरोना पॉजिटिव होते हैं क्योंकि नेगेटिव वाले शवों को तो परिजन ले जाते हैं।
बहुत से ऐसे मामले सामने आ रहे हैं, जिनमें शव के साथ कोई होता ही नहीं। परिजन या तो आते नहीं या होते ही नहीं। ऐसे शवों का अंतिम संस्कार भी यही करते हैं। विष्णु ने बताया कि, कोरोना से बचने के लिए मैं पीपीई किट पहनता हूं। घरवालों को चिंता होती होगी? ये पूछने पर बोले, सर घर पर पत्नी, 6 माह की बेटी और एक तीन साल का बेटा है। परिवार में किसी को मेरे कारण संक्रमण न हो इसलिए लॉज में ही एक कमरा लिया है, वहीं रुका हूं।

विष्णु बीते 28 दिनों से अपने घर नहीं गए।

विष्णु कहते हैं, हम हिंदू ही नहीं बल्कि मुस्लिमों का भी अंतिम संस्कार कर रहे हैं। उन्हें दफनाने का काम करते हैं। कई बार उनकी साथी आ जाते हैं तो उनकी मदद कर देते हैं। बोले, कोरोना के कारण डर तो लगता है लेकिन हमे विश्वास है कि कुछ नहीं होगा। कुछ दिन पहले कोरोना टेस्ट भी करवाया है, जो निगेटिव आया।

विष्णु की टीम में मंगल, अर्जुन, मनीष और रोशन भी शामिल हैं। इन लोगों को 6 से 8 हजार रुपए महीना तक मिल जाता है। नगर निगम एक शव का पोस्टमार्टम करने से लेकर अंतिम संस्कार करने तक का 500 रुपए देती है। कई बार शव के साथ परिजन आते हैं लेकिन वे नजदीक नहीं जाते, ऐसे में पूरी प्रक्रिया हम लोगों को ही पूरी करनी होती है।

तीसरी कहानी मुंबई की....
मुंबई में शवों का दफनाने का काम शोएब खतीब अपनी टीम के साथ निभा रहे हैं। वे कहते हैं, हमारी 35 लोगों की टीम है। जिस भी हॉस्पिटल में मौत होती है, वहां के नजदीकी कब्रिस्तान में शव लाकर दफनाने का काम करते हैं।
कई बार तो शव को अस्पताल से क्लेम करने भी जाते हैं, क्योंकि परिवार क्वारेंटाइन में है। टीम में हर किसी ही अलग-अलग जिम्मेदारी है। कोई शव को एम्बुलेंस से उतारने का काम करता है। कोई गड्‌ढा खोदने का काम करता है तो कोई दफनाने का।

शवों का दफनाने का काम शोएब खतीब अपनी टीम के साथ कर रहे हैं।

शोएब कहते हैं कि, हम तो चौबीस घंटे इसी काम में लगे हैं। दिन ही नहीं रात में भी शव को दफना रहे हैं। सुरक्षित रहने के लिए पीपीई किट पहनते हैं। सैनिटाइजर पास रखते हैं, लेकिन खतरा तो होता ही है। बोले, जामा मस्जिद ऑफ बॉम्बे ट्रस्ट द्वारा यह पूरा सेवाएं फ्री दी जा रही हैं। इसके लिए लोगों से पैसा नहीं वसूला जाता।



आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें
After Death, This Businessman Funeral Coronavirus


from Dainik Bhaskar https://ift.tt/2KRMIDE
via

No comments:

Post a Comment

easysaran.wordpress.com

from देश | दैनिक भास्कर https://ift.tt/eB2Wr7f via