Monday, August 10, 2020

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क्या 5 अगस्त को अयोध्या में भारतीय धर्मनिरपेक्षता की मौत हो गई? इसके बाद क्या एक नए भारतीय गणतंत्र ‘हिन्दू राष्ट्र’ की खोज हो गई? अगर आप इन दो तर्कों को स्वीकार करते हैं तो तीसरा अपरिहार्य हो जाता है। हमारे धर्मनिरपेक्ष संविधान में आस्था रखने वाला कोई भी भारतीय कह सकता है कि यह वो देश नहीं है, जिसमें मैं पैदा हुआ था। अब मैं यहां से जा रहा हूं।

लेकिन हम पहले ही साफ कर दें कि हम इन अनुमानों को बेकार मानकर खारिज करते हैं। पहली बात, भारतीय धर्मनिरपेक्षता की मौत महज अफवाह है। दूसरी बात, धर्मनिरपेक्षता की मौत की तो पहले भी लगभग उतनी बार हो चुकी है, जितनी बार हास्यास्पद टीवी चैनल दाऊद के मारे जाने की घोषणा कर चुके हैं।

पिछले 35 वर्षों के दौरान, धर्मनिरपेक्षता की मौत की तब भी घोषणा की गई जब राजीव गांधी ने शाह बानो मामले (1986) में कार्रवाई की, जब सलमान रुशदी की किताब ‘सैटनिक वर्सेज़’ पर पाबंदी लगाई गई (1988), जब बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि का ताला खोला गया और ‘राम राज्य’ लाने के वादे के साथ अयोध्या से राष्ट्रीय चुनाव अभियान शुरू किया गया (1989)।

धर्मनिरपेक्षता को फिर मृत घोषित कर दिया गया, जब 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी ने देश में पहली बार भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार बनाई। इसके बाद 2002 में गुजरात में हुई हत्याओं और नरेंद्र मोदी की वहां बार-बार जीत के साथ भी धर्मनिरपेक्षता मरती रही। तभी हम देख सकते थे कि 19 मई 2014 और अब 5 अगस्त 2020 को जो कुछ हुआ, वह तय था।

भारतीय धर्मनिरपेक्षता को 2014 में और फिर 2019 में भी मृत घोषित किया गया। इसके बावजूद वह पिछले सप्ताह 5 अगस्त को फिर से मारे जाने के लिए जिंदा थी। लेकिन हां, आप कह सकते हैं कि इस बार मैंने उसकी लाश देखी है।

बाबरी विध्वंस और दंगों से तटस्थ हिन्दू नाराज हुए, जो इसके बाद हुए चुनाव नतीजों में भी दिखा। खासकर उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह की सरकार जाने के बाद मुलायम सिंह यादव और मायावती ने पुनःपरिभाषित ‘सेकुलर’ वोट के इर्द-गिर्द अपनी नई राजनीति चलाई। बिहार में लालू यादव का भी यही फॉर्मूला रहा। सेकुलर वोट को मुस्लिम वोट माना जाने लगा था।

इस फॉर्मूले के तहत पुराने दुश्मनों ने भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए असंभव दिखने वाले गठजोड़ किए। देवगौड़ा और गुजराल के तहत यूनाइटेड फ्रंट की जो दो सरकारें बनीं, वे जनादेश की अवहेलना ही थीं। 1992 के बाद धर्मनिरपेक्षता का ‘भाजपा के सिवा कोई भी’ वाला जो नया फॉर्मूला बना उसके तहत सच्चा जनादेश 2009 में ही मिला।

इसे हम 1992 के बाद धर्मनिरपेक्षता का नया फॉर्मूला इसलिए कहते हैं क्योंकि वामपंथी राजनीति और बुद्धिजीवी वर्ग भी इससे जुड़ गए। उन्होंने अयोध्या के द्वंद्व को इस सवाल पर पहुंचा दिया कि राम का अस्तित्व वास्तव में था भी या नहीं? यह कांग्रेस के उस रुख से अलग था जिसके तहत अल्पसंख्यकों की हिमायत तो की जाती थी मगर हिन्दू धर्म का मखौल नहीं उड़ाया जाता था।

अगर नई भाजपा और ज्यादा गहरे भगवा रंग में रंग गई, तो कांग्रेस के नेतृत्व वाली धर्मनिरपेक्षता और ज्यादा लाल रंग नज़र आने लगी। इसके चलते कई भारी भूलें की गईं। यूपीए-1 के गठन में ‘पोटा’ को खत्म करने की शर्त रखी गई क्योंकि इससे ‘मुसलमान’ प्रताड़ित महसूस करते थे।

मनमोहन सिंह ने बयान दे दिया कि देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है। सपा-बसपा और राजद भी एक-दो बड़ी जातियों के साथ मुस्लिम वोट को जोड़कर सत्ता हासिल करती रहीं।

नरेंद्र मोदी दावा कर सकते हैं कि उन्होंने भारतीय धर्मनिरपेक्षता को जनता की इच्छा के आधार पर परिभाषित किया है। एक सच्चे गणतंत्र में, संविधान चाहे जो कहे, अगर बहुसंख्य लोग किसी बात को नापसंद करते हैं तो वे उसे खारिज कर सकते हैं।

कमाल अतातुर्क ने घोषणा कर दी कि हागिया सोफिया न चर्च है, न मस्जिद और उसे संग्रहालय बना दिया। वे लोकतंत्रवादी नहीं थे, उदार तानाशाह थे। वे राजनीति में धर्म का घालमेल नहीं चाहते थे। पिछले महीने एर्दोगन ने उस फैसले को उलट दिया। वे लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित हैं। जो सेकुलर था वह लोकतांत्रिक नहीं था, जो लोकतांत्रिक है वह सेकुलर नहीं है।

जब 13 दिन की वाजपेयी सरकार विश्वास मत हासिल करने में विफल रही थी, तब ‘सेकुलर’ रहे नेता रामविलास पासवान ने शानदार भाषण दिया। उन्होंने कहा, ‘बाबर केवल 40 मुसलमान लेकर आया था। उनकी संख्या करोड़ों में पहुंच गई क्योंकि आप ऊंची जाति वालों ने हमें मंदिरों में जाने नहीं दिया लेकिन मस्जिदों के दरवाजे खुले थे, तो हम वहीं चले गए।’

भारतीय धर्मनिरपेक्षता हमारे संविधान के बुनियादी ढांचे में शामिल है, जिसे अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने तब और मजबूती दे दी, जब उसने भारत के सभी धार्मिक स्थलों को सुरक्षा प्रदान करने वाले 1993 के कानून को इस ढांचे में बड़ी कुशलता से शामिल कर दिया। इस ढांचे की रक्षा जरूरी है। भारतीय धर्मनिरपेक्षता को किसी स्मृति-शिला की जरूरत नहीं है, उसे नए पूजास्थल की जरूरत है, जैसा पासवान ने बताया था। (ये लेखक के अपने विचार हैं)



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