Monday, July 13, 2020

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एक आदमी को एक कथित ‘एनकाउंटर’ में मार डाला गया है। इससे जुड़े पुलिसवाले और उनके सियासी आका जो कहानी पेश कर रहे हैं, उस पर अगर आप यकीन करते हैं तो आप ‘विक्रम-बेताल’ की कथा को भी सच मान लेंगे। बल्कि उनकी कहानी के आगे मुझे तो इस कथा के कुछ प्रसंग ज्यादा विश्वसनीय लगने लगे हैं। कुछ देर के लिए हम इस मामले के फॉरेंसिक तथा न्याय-प्रक्रिया से जुड़े पहलुओं को अलग रखते हैं और इससे उभरे राजनीतिक संदेश को समझने की कोशिश करते हैं।

उत्तर प्रदेश राज्य हमें क्या संदेश दे रहा है? वह राज्य, जहां देश की 15% आबादी रहती है, जिसने शासक दल को उसके कुल लोकसभा सदस्यों में से 20% सदस्य दिए हैं। प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री दिया है। वह राज्य हमसे क्या कह रहा है? वह साफ-साफ संदेश दे रहा है, तुम सब भाड़ में जाओ! अपना संविधान, अपनी अदालतें आदि अपने पास रखो! हम तो मनमर्जी कानून बनाते हैं और जब जी में आता है उसे तोड़ते हैं। क्यों? क्योंकि हमारा आकार देखो।

आइए, सबसे पहले हम ‘यूपी’ की इस समस्या को समझने की कोशिश करते हैं। यह 75 जिलों वाला राज्य है, यानी देश के 10 प्रतिशत जिले इस प्रदेश में हैं। इस प्रदेश को संभालना कितना मुश्किल है, यह समझने के लिए उन कुछ देशों को देखें जिनकी आबादी लगभग यूपी की आबादी जितनी है। जैसे पाकिस्तान और ब्राजील। यह असंभव काम है और यह प्रदेश के प्रशासन के स्तर और राज्य के सामाजिक संकेतकों से जाहिर होता है।

कुछ संकेतकों में यह पाकिस्तान से बेहतर (शिशु मृत्यु दर में) है जबकि प्रति व्यक्ति आय, स्त्री-पुरुष अनुपात के मामलों में उससे भी बदतर है। उत्तर प्रदेश में अपराध दर, माफिया की पैठ, राजनीति का अपराधीकरण फिल्मी कहानी जैसा ही है। इसकी वजह है इसका विशाल आकार और इसकी राजनीति, जो जाति तथा धर्म के आधार पर इतनी बंटी हुई है कि सत्तातंत्र से बाहर रह गए तत्व संरक्षण, इंसाफ और बराबरी के हक के लिए जातीय माफिया और बाहुबलियों की शरण लेते हैं।

यह सब कैसे काम करता है? प्रदेश पर अगर किसी यादव पिता या पुत्र का राज है, तो इसका मतलब है कि सारे यादव सत्ता में हैं, जबकि राज्य में उनकी आबादी करीब 9% ही है। वे कभी मुसलमानों के साथ, तो कभी ठाकुरों के साथ गठजोड़ कर लेते हैं। जो जातियां वंचित महसूस करती हैं, वे अपने माफिया सरगनाओं का सहारा लेती हैं। नतीजतन ऐसी प्रतिरोधी परिस्थिति बनती है जिसमें वे जातीय माफिया ज्यादा सक्रिय होते हैं, जो सत्ता से बाहर होते हैं।

1980 वाले दशक तक, जब प्रायः ऊंची जाति के नेता मुख्यमंत्री होते थे, अपराधी गिरोह और डकैत पिछड़ी जातियों के होते थे। ये वीपी सिंह ही थे, जिन्होंने मुख्यमंत्री के रूप में 1981-82 में एक महीने के अंदर 299 ‘डकैतों’ को मरवाकर राज्य में एनकाउंटर का चलन शुरू किया था। इसके साथ की राजनीतिक कहानी यह है कि मुलायम सिंह यादव नाम के एक युवा पहलवान इन एनकाउंटरों के खिलाफ मुहिम चलाने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में मशहूर हो रहे थे।

एनकाउंटरों में मारे जाने वाले ज़्यादातर लोग पिछड़ी जातियों के थे, जो आगे चलकर उनका जनाधार बने और जब सत्ता यादवों समेत निचली तथा पिछड़ी जातियों के हाथ में आई तो ऊंची जातियों ने संगठित अपराध शुरू कर दिया। आज प्रदेश कानपुर में जिस माफिया से जूझ रहा है वह मुख्यतः ब्राह्मणों का ही है। 32 साल से यह समुदाय राजनीतिक सत्ता से वंचित है। करीब 2,43,000 वर्ग किमी में फैले राज्य को संभालना किसी एक सरकार और एक व्यक्ति के बूते की बात नहीं। इसी तरह, 80 लोकसभा सीटें गुजरात, राजस्थान और कर्नाटक की कुल लोकसभा सीटों के योग से भी ज्यादा हैं। यह राजनीतिक विषमता पैदा करता है।

उत्तर प्रदेश को पांच नहीं, तो चार हिस्सों में जरूर बांटना चाहिए। इसके पश्चिमी जिले हरित प्रदेश की मांग कर रहे हैं। दक्षिण में बुंदेलखंड के साथ मध्य प्रदेश के कुछ पड़ोसी जिलों को मिलाकर एक अलग प्रदेश बना सकते हैं। प्रदेश में पूरब में नेपाल सीमा से सटे बिहार तक के जिलों को शामिल कर, गोरखपुर को राजधानी बनाकर पूर्वांचल राज्य बना सकते हैं। मध्यवर्ती क्षेत्र को अवध प्रदेश या अन्य नाम का प्रदेश बना सकते हैं, जिसकी राजधानी लखनऊ हो सकती है। इस तरह चार नए राज्य बन जाएंगे लेकिन पांच राज्य ज्यादा बेहतर होंगे, क्योंकि पूर्वांचल आकार में काफी बड़ा हो जाएगा, जबकि वह काफी अविकसित है। इसलिए इसे दो भाग में बांट सकते हैं और वाराणसी दूसरे राज्य की राजधानी हो सकती है।

कोई भी राजनीतिक नेता यह नहीं करना चाहता। पूर्ण बहुमत से राज करने वाले का तो निहित स्वार्थ इसी में है कि यूपी अखंड रहे, चाहे वह कितना भी बिखरा हुआ क्यों न हो। जब तक इस चुनौती को कोई स्वीकार नहीं करता तब तक उस प्रदेश के लिए कोई उम्मीद नहीं नज़र आती, जिसमें देश की कुल आबादी का छठा हिस्सा रहता है।(ये लेखक के अपने विचार हैं)



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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’


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