Sunday, March 1, 2020

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नई दिल्ली. दिल्ली में हुए ये दंगे 1984 के दंगों से भी खतरनाक थे। 1984 में तो सिख समुदाय टारगेट था। तब हर कोई सिखों को देखकर हमला कर रहा था, लेकिन दिल्ली में अभी हुए दंगों में किसी की पहचान नहीं हो पा रही थी। कौन, किसको मार रहा था, ये न मारने वाले को पता था, न मरने वाले को। न जाने कितने बेगुनाह तो सिर्फ शक में ही मार दिए गए। ये कहते हुए गुरमीत सिंह की आंखे भर आईं।

गुरमीत सिंह वे व्यक्ति हैं, जिनका 1984 के दंगों में 40% शरीर जल गया था। वे तब भी दिल्ली के खजूरी खास में ही रहा करते थे, अब भी वहीं रहते हैं। उन्होंने बताया कि 1984 में मेरी 16 साल उम्र थी। तब भी दंगे के शुरू होने के बाद दो-तीन दिन तक फोर्स नहीं आई थी, इस बार भी ऐसा ही हुआ। 2 नवंबर 1984 को मैं बच गया था, क्योंकि दंगाई मुझे पहचान नहीं पाए। 3 नवंबर को दंगाई घर तक आ गए और बाहर खींचकर मेरे ऊपर जलता टायर डाल दिया। पूरा शरीर झुलस गया था। बाद में कोई हॉस्पिटल लेकर गया। मुश्किल से जान बची।

ऐसे हालात के बावजूद आप खजूरी खास में ही रहने की हिम्मत कैसे जुटा पाए? इस सवाल के जवाब में गुरमीत बोले- हमारे पड़ोसियों ने मदद की थी क्योंकि हमने उनसे अच्छे रिश्ते थे। उन्हीं की ताकत से रहने की हिम्मत आई। दंगाई तो आकर चले गए, लेकिन पड़ोसियों ने कहा कि आप यहीं रुको। हम आपके साथ हैं। यहां ठहरने की एक मजबूरी ये भी थी कि दूसरी जगह काम करने को कुछ था नहीं। मुस्कुराते हुए गुरमीत यह भी कहते हैं कि यहां टिक गया तो अपना धंधा जमा लिया। आज 10-12 लोगों को रोजगार दे रहा हूं। डरकर भाग जाता तो गांव में मजदूरी कर रहा होता।

‘तब भी जनता की जान गई, आज भी जनता ही मरी’
क्या 1984 को कोई और भी पीड़ित यहां है, इस पर गुरमीत ने बताया कि सिखों के कई परिवार हैं। रुकिए अभी बुलाता हूं। थोड़ी देर में दो महिलाएं आईं। हमने अपना परिचय देते हुए 1984 और 2020 के हालातों के बारे में पूछा तो बोलीं कि उस समय भी कोई नेता नहीं मरा था, इस समय भी किसी नेता की मौत नहीं हुई। उस समय भी जनता मरी थी और आज भी जनता की जान गई। हम उन दिनों को याद करना ही नहीं चाहते, लेकिन अभी हुए दंगों को देखकर वो पुराना मंजर आंखों के सामने आ गया। तब तो सिर्फ सिखों को टारगेट किया जा रहा था, लेकिन इस बार तो हिंदू और मुस्लिम दोनों को मारा गया।

महिलाओं ने यह भी बताया कि दंगाई बाहर से आए थे। एक भी ऐसा चेहरा नहीं दिखा जो जाना-पहचाना हो। वे लोग आए और आग लगाकर चले गए। हिंसा के बाद आपने रहने का साहस कैसे जुटाया, इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि आसपास के लोगों का साथ था। कुछ पंडितों के घर थे। उन्होंने कहा, आप यहां रहिए, कोई दिक्कत नहीं होगी। महिलाओं ने यह भी कहा कि हम हिंदू-मुसलमान या किसी में भी भेद नहीं करते। जिस दिन दंगाई हमारी सड़क वाली दुकान जलाने आए थे, हम दुकान के सामने खड़े हो गए।

आपको डर नहीं लगा? इस परमहिलाएं बोलीं कि डर तो अब पूरी तरह खत्म हो गया। कई साल डर में निकाले। हमारे बोलने पर तो दंगाई चले गए, बाद में पता चला कि किसी ने उन्हें भड़का दिया और वे दोबारा दुकान जलाकर चले गए। लोगों का डर कैसे खत्म हो सकता है? इस पर कहा कि आसपास सब मिलकर रहेंगे तो डर अपने आप खत्म हो जाएगा। झगड़ा करते रहे तो जिंदगी बर्बाद हो जाएगी।

‘ताहिर की बिल्डिंग से मौत का मंजर देखा’
खजूरी खास से होते हुए हम मूंगा नगर पहुंचे तो यहां किराने की दुकान पर सुंदरलाल मिले। 84 के दंगे के बारे में पूछने पर बोले- जो मंजर अभी देखा है, उसके सामने 1984 और 1992 कुछ नहीं था। तब मैं दिल्ली क्लॉथ मार्केट में नौकरी करता था और आटा चक्की भी चलाता था। जब इंदिरा गांधी की हत्या हुई, तब हम मिल से आ रहे थे। हमारे इलाके में ज्यादा सरदार नहीं थे। भजनपुरा में सरदारों की दुकानें थीं, जिन्हें दंगाइयों ने जला दिया। हमारी गली में एक ही सरदार का घर था, जिसे हमने बचाया। वे आज भी हम लोगों साथ ही रह रहे हैं।

सुंदरलाल के मुताबिक, ताहिर की बिल्डिंग से मैंने ऐसा नजारा देखा, जिसे भूल नहीं सकता। हिंदू तो बिना हथियारों के थे, लेकिन ताहिर की बिल्डिंग से गुलेल से पत्थर ही नहीं चल रहे थे बल्कि तेजाब भी फेंका जा रहा था। वहां से गोलियां भी चल रही थीं। हमला दोनों तरफ से हो रहा था, लेकिन उस बिल्डिंग से हथियार चलाए जा रहे थे। हमारे पड़ोस के मुसलमान की दुकान जला दी, हम होते तो ऐसा नहीं होने देते। वे हमारी दुकान भी खोल रहे थे, लेकिन शटर ही टूटी, अंदर आग नहीं लगा सके।

‘वे कहां से आए, कहां गए, कोई नहीं जानता’
इसके बाद हम खजूरी खास पहुंचे, जहां मुस्लिम समुदाय के कुछ लोग बैठे दिखे। मोहम्मद साबिर ने बताया कि 1984 में भी इंसानियत का खून किया गया था और आज भी इंसानियत ही मारी गई। उस समय भी दंगे में तीन दिन चले थे, शुरुआत में तो फोर्स भी नहीं आई थी, इस बार भी यही हुआ। कभी न भूलने वाला मंजर वो भी था और कभी न भूलने वाला मंजर ये भी हो गया। ये कौन लोग हैं, कहां से आते हैं, कहां आते हैं, ये तब भी पता नहीं था और आज भी पता नहीं चला। वे न हिंदू थे, न मुस्लिम थे। उनकी आगे की योजना के बारे में भी नहीं जानते। हम तो बस यही चाहते हैं कि सब मिलकर रहें। हमारा किसी से कोई बैर नहीं।

अब्दुल अजीम ने बताया कि हमने तब भी मार-काट देखी थी, अब भी वही देखी। शाहदा बोलीं, हमारी कॉलोनी में हिंदू-मुस्लिम सब मिलकर रहते हैं। पिछले तीन दिनों से पंडितजी का फोन आ रहा है। वे पूछते हैं कि आप लोग खैरियत से हैं। हमारे बच्चों को वे अपने बच्चे जैसा मानते हैं।



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People said - riots of 2020 were dangerous since 1984; The rioters came from outside, there was no known face


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