
नई दिल्ली. सुप्रीम कोर्ट मंगलवार को जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की रिहाई के लिए उनकी बहन सारा पायलट की याचिका पर सुनवाई करेगा। सारा ने याचिका में पब्लिक सेफ्टी एक्ट 1978 (पीएसए) के तहत अपने भाई उमर की हिरासत को चुनौती दी है। 5 मार्च को यह याचिका जस्टिस अरुण मिश्रा की अगुवाई वाली बेंच में लिस्ट कराई गई थी। हालांकि जस्टिस मिश्रा के दूसरे मामले में व्यस्त होने के कारण सुनवाई नहीं हो पाई। कोर्ट ने सारा की याचिका पर होली के बाद सुनवाई करने की बात कही थी।
सारा की ओर से वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने कोर्ट में पैरवी की थी। सिब्बल ने कोर्ट से कहा था कि यह बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका है, इसलिए इसपर जल्द सुनवाई की जाए। इस मामले में कोर्ट ने 12 फरवरी को केंद्र और जम्मू प्रशासन को नोटिस जारी कर जवाब मांगा था।
प्रशासन का दावा- उमर की रिहाई से सरकारी आदेश को खतरा
इससे पहले 2 मार्च को जम्मू कश्मीर प्रशासन ने कोर्ट को इस मामले पर अपना जवाब सौंपा था। प्रशासन ने कोर्ट को बताया था कि उमर अब्दुल्ला अनुच्छेद 370 हटाने के कड़े आलोचक रहे हैं। जम्मू-कश्मीर और लद्दाख पाकिस्तान के काफी करीब है। ऐसे में अगर उन्हें रिहा किया जाता है अनुच्छेद 370 हटाने के सरकारी आदेश पर खतरा है। प्रशासन ने सारा की ओर से पीएसए के तहत उमर की हिरासत को चुनौती देने पर भी आपत्ति जताई थी। उमर को अगस्त, 2019 से सरकारी गेस्ट हाउस में नजरबंदी में रखा गया है।
उमर के पिता फारूख अब्दुल्ला नजरबंदी से रिहा हो चुके हैं
उमर के पिता फारूख अब्दुल्ला पर भी पीएसए के तहत मामला दर्ज था। हालांकि पिछले सप्ताह वे रिहा कर दिए गए थे।जम्मू कश्मीर के कई नेताओं पर पीएसए लगाया गया है। उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती पर 6 फरवरी को पीएसए के तहत केस दर्ज किया गया था। दोनों की हिरासत की अवधि इसी दिन खत्म हो रही थी। पुलिस ने डॉजियर में लिखा कि उमर अब्दुल्ला का जनता पर खासा प्रभाव है, वे किसी भी कारण के लिए जनता की ऊर्जा का इस्तेमाल कर सकते हैं। पुलिस ने कहा- महबूबा ने राष्ट्रविरोधी बयान दिए और वे अलगववादियों की समर्थक हैं।
क्या है पीएसए?
पीएसए के तहत सरकार किसी भी व्यक्ति को भड़काऊ या राज्य के लिए नुकसानदेह मानकर हिरासत में ले सकती है। यह कानून आदेश देने वाले अफसर के अधिकार क्षेत्र की सीमा के बाहर व्यक्तियों को हिरासत में लेने की अनुमति देता है। कानून के सेक्शन 13 के मुताबिक, हिरासत में लेने का आदेश केवल कमिश्नर या डीएम जारी कर सकता है। इसमें कोई भी यह कहने के लिए बाध्य नहीं है कि कानून जनहित के खिलाफ है।
कानून के दो सेक्शंस हैं। एक- लोगों के लिए खतरा देखते हुए, इसमें बिना ट्रायल के व्यक्ति को 3 महीने तक हिरासत में रखा जा सकता है। इसे 6 महीने तक बढ़ाया जा सकता है। दूसरा- राज्य की सुरक्षा के लिए खतरा, इसमें दो साल तक हिरासत में रखा जा सकता है।
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